“रजिस्ट्री रैकेट: कैसे बनते हैं कागज़, और कौन बनाता है?” मग्गू सेठ फाइल्स — भाग 2

“रजिस्ट्री रैकेट: कैसे बनते हैं कागज़, और कौन बनाता है?” मग्गू सेठ फाइल्स — भाग 2

रिपोर्ट: जितेन्द्र कुमार जायसवाल | बलरामपुर-रामानुजगंज, छत्तीसगढ़

बलरामपुर-रामानुजगंज  / “भूमि अधिग्रहण नहीं, बल्कि भूमि अपहरण है ये — कागज़ी छल की ऐसी मशीन जिसमें पटवारी से लेकर पंजीयन कार्यालय तक सब चुपचाप घूमते हैं।”

जब पहाड़ी कोरवा जुबारो बाई की ज़मीन को किसी शिवराम के नाम पर रजिस्ट्री कर दिया गया, तो वो न तो रजिस्ट्री ऑफिस गईं, न कोई पैसे मिले, और न ही किसी वकील से मुलाकात हुई।

तो फिर कागज़ कैसे बन गए?

1. कागज़ कैसे बनता है — ‘फॉर्मेटेड फ्रॉड’

जैसे ही आदिवासी या अनपढ़ व्यक्ति की ज़मीन का नक्शा सरकारी वेबसाइट या हल्का ऑफिस में उपलब्ध होता है, रैकेट के लोग सक्रिय हो जाते हैं।

नकली सहमति पत्र तैयार होता है

अंगूठा लगवाया जाता है “कर्ज दिलवाने” के नाम पर

सादे कागज़ पर दस्तखत कराए जाते हैं “सरकारी योजना” के नाम पर

फिर वही कागज़ सेठ की टीम के वकील के पास जाता है, जो उसे ‘रीडायरेक्ट’ करता है रजिस्ट्री ऑफिस में

2. कौन बनाता है ये कागज़?

🔹 पटवारी: ज़मीन की जानकारी और खतियान बदलवाने में सहयोग

🔹 रजिस्ट्रार/क्लर्क: बिना दस्तावेज सत्यापन के रजिस्ट्री पास

🔹 बिचौलिये: ग़रीबों को बहलाकर दस्तखत करवाते हैं

🔹 नकली गवाह: हर रजिस्ट्री में वही दो नाम — जो दर्जनों मामलों में ‘गवाह’ बने हैं

“इस रैकेट का सबसे मज़बूत हिस्सा है — साइलेंस। कोई कुछ नहीं बोलता, क्योंकि सबको हिस्सा मिलता है।”

3. दस्तावेज़ों की जांच से क्या मिला?

हमारी पड़ताल में सामने आया कि जुबारो बाई के केस में उपयोग किए गए सहमति पत्र पर उनकी अंगुली छपी है, लेकिन उसी दिन वो जिला अस्पताल में भर्ती थीं।

क्या दस्तावेज़ फर्जी हैं? या प्रशासन की आंखें बंद हैं?

4. क्या कहता है कानून?

छत्तीसगढ़ भू-अर्जन अधिनियम और अनुसूचित जनजाति सुरक्षा अधिनियम के अनुसार, आदिवासी जमीन को गैर-आदिवासी के नाम रजिस्ट्री करना तभी संभव है जब:

ज़िला कलेक्टर से विशेष अनुमति हो

बाजार दर पर भुगतान हो

संबंधित व्यक्ति की स्पष्ट सहमति हो

तीनों में से कोई भी प्रक्रिया नहीं हुई।

5. अब सवाल ये उठता है:

क्या राजस्व विभाग इन फर्जीवाड़ों में खुद शामिल है?

क्या कोई ‘जांच अधिकारी’ कभी इन फाइलों को खोलेगा?

जुबारो बाई जैसी दर्जनों और औरतें हैं, जिनकी ज़मीन गुमनाम हो चुकी है — क्या वे कभी न्याय पाएंगी?

📍 अगले भाग में पढ़िए:

“भरोसे की कब्र: आदिवासी जमीनों पर कब्ज़े का सिस्टम”

जिसमें हम दिखाएंगे कि किस तरह ‘कब्ज़ा’ सिर्फ झोपड़ी से नहीं होता, बल्कि कानून की चुप्पी से भी होता है।

✍️ जारी रहेगा…

यदि आपके पास भी ऐसे किसी मामले की जानकारी हो — हमें लिखिए। पत्रकारिता अब चुप नहीं रहेगी।

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